माँ
"नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा॥"
जब नाराज़ होने पर कोई मनाता नहीं है,
जब थक जाती हूँ परिस्तिथियों से लड़कर,
जब हार जाती हूँ रिश्तों की तल्खियों से,
जब कोई मन की थाह नहीं लेता,
जब कोई मन की थाह नहीं लेता,
जब उदासी मन में आती है,
जब लोगों की आँखों में खटकती हूँ,
चाहे कितने ही मीलों के फ़ासले हों, तू एक आवाज़ में दिल का हाल जान लेती है,
तब ए माँ तेरी बहुत याद आती है ।
उसूलों की राह पर चलते हुए हर कठिनाई से टकराना सिखाया,
अपनों का तिरस्कार शालीनता से सहना सिखाया,
बसा रहे घर-बँटे नहीं, कलेजे पर पत्थर रखकर मुस्कुराना सिखाया,
सुघड़ता और समझदारी से घर को सँवारना सिखाया,
धैर्य और प्रेम से रिश्ते निभाना सिखाया,
लोभ, मोह, माया से दूर रहना सिखाया,
कम में भी संतुष्ट रहना सिखाया,
सिर्फ़ खुशियाँ और सुख बाँटना सिखाया,
त्याग और तपस्या करना सिखाया,
साफ़, सरल, खूबसूरत जीवन जीना सिखाया,
गम खाकर, दुख भुलाकर भी मुस्कुराना सिखाया।
लेकिन जब तेरे हाथ का बना लज़ीज़ खाना खाने को तरसती हूँ,
जब तुझे देखने को लालायित होती हूँ,
जब तेरे पास बैठने को ललकती हूँ,
तब ये आँखें भर आती हैं,
तब ये आँखें भर आती हैं,
तब जी भरकर रो लेती हूँ,
तब ए माँ तेरी बहुत याद आती है।
-अनुषा चौहान
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ANUSHA CHAUHAN
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1) This story is a fictional spoof, satire, pure fiction, just for the social awakening, no offence is meant to anyone, have a thought.
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